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कविता

ओरहन*

श्रीप्रकाश शुक्ल


आहिस्ता-आहिस्ता नदी ओहरने लगी है
आहिस्ता-आहिस्ता दूब दिखने लगी है
आहिस्ता-आहिस्ता टूटी चप्पलों के बीच
पैरों की आहट मिलने लगी है
और आहिस्ता-आहिस्ता हवा में उठते हाथ
नाखूनों के पोर से कुछ गुनगुनाने लगे हैं

सब कुछ आहिस्ता-आहिस्ता होने लगा है
सब कुछ जिंदगी की आश्वस्तियों के बीच मुस्कुराने लगा है
सब कुछ बहुत कुछ की तरह याद आने लगा है

यह उत्सर्जन के बाड़ की आश्वस्ति है
जिसमें आहिस्ता-आहिस्ता यह भूलने लगे हैं लोग
कि आगे और भी विसर्जन होना है
फिर भी जीवन की तरह!

जैसा कि सदियों से होता आया है
जिसने जीवन बिछाना जाना है
वह जीवन को समेटना भी जानता है
यह पहचानने लगे हैं लोग
बेशक
आहिस्ता-आहिस्ता।

यह एक नदी का जीवन है
जो आहिस्ता-आहिस्ता हिमालय से निकलती है
जो हमारे सपनों को छूती हुई
आहिस्ता-आहिस्ता गंगा की ओर जा रही है

इसने जब भी राह बदली है
इशारे से बताना चाहा है

कि चुपचाप जाते हुओं को रोका-टोका नहीं करते
नहीं करते अकारण उस आदमी से छेड़छाड़
जो अपनी राह चल रहा हो

लोग हैं कि आहिस्ता-आहिस्ता उधेड़ने लगे हैं उसकी सीवन
उसके जिस्म के साथ खेलते रहे बरवक्त
और जब कभी उसने हवा में
अपने आँचल को लहराया
लोगों ने कहा कि यह बाढ़ है

यहाँ खेत का रेत से मिलन था
जिसमें अपने गगन में मगन
बह रही थी नदी।

जिन्हें इस बाढ़ में जाना था
जिन्हें इस बाढ़ में उतिराना था
जिन्हें फूलते हुए इस बाढ़ के मानी को समझना था
वे तो रह गए
बचे कि बचे|
बच बचा के!

जिन्होंने इस नदी को देखा काँखभर
जिन्होंने अपनी पुतलियों में बसाया नदी को
फिर भी आँखभर
वे ही जुदा हुए
इस नदी से

जाहिर सी बात है
अपनी सदी से!

बाढ़ जी कि बाढ़ थी
असल में बाढ़ नहीं थी
यह तो नदी का एक ओरहन था

अपनी यातना के खिलाफ!
* शिकायत के अर्थ में
('ओरहन और अन्य कविताएँ' संग्रह से)


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